आहड़ शिलालेख के अनुसार गुहिल ब्राह्मण थे तथा डॉ. गौरीशंकर ओझा एवं वह मुहणौत नैणसी तथा कर्नल जेम्स टॉड के अनुसार गुहिल सूर्यवंशी थे।
राजा शिलादित्य की रानी पुष्पावती के पुत्र गोह (गुहिलादित्य) के नाम कुल वंश का नामकरण हुआ। गुहिलादित्य गुहिल वंश का संस्थापक व मूल पुरुष।
566 ई. मे गुहिलादित्य ने नागदा को गुहिलवंश की राजधानी बनाकर मेवाड़ में गुहिल वंश की स्थापना की।
बप्पा रावल / कालभोज ( 734 – 753 ई.)
नागादित्य के पुत्र बप्पा रावल को हारित ऋषि ने “एकलिंग के दीवान” की उपाधि दी तथा शिवजी से मेवाड़ का राज्य बप्पा रावल के लिए मांग लिया था।
बप्पा रावल ने एकलिंग जी का मंदिर बनवाया तथा स्वयं को उनका दीवान घोषित किया। मेवाड़ में गुहिल वंश का प्रथम प्रतापी शासक बप्पा रावल ने सोने के सिक्के चलाए।
गुहिल वंश के शासक महेंद्र सिंह द्वितीय के पुत्र काल भोज को आहड़ के लेख में गुहिल वंश की मुकुट मणि के समान बताया है।
प्रतापगढ़ अभिलेख के अनुसार भर्तृभट्ट द्वितीय ने “महाराजाधिराज” की उपाधि धारण की।
भर्तृभट्ट द्वितीय की राठौड़ वंश की रानी महालक्ष्मी के पुत्र अल्हट को ख्यातों में “आलु-रावल” कहा गया है।
अल्हट ने अपनी राजधानी नागदा को हटाकर आहड़ को बनाया तथा मेवाड़ में पहली बार नौकरशाही की शुरुआत करी।
अस्ति कुंड के शिलालेखों के अनुसार परमार शासक मुंज ने गुहिल शासक शक्तिकुमार के समय चित्तौड़ पर हमला किया तथा आहड़ को नष्ट कर अपना अधिकार किया।
मुंज के भतीजे भोज परमार ने चित्तौड़गढ़ में त्रिभुवन नारायण का मंदिर बनवाया जिसे मोकल का मंदिर या समिध्देश्वर मंदिर भी कहते हैं।
रण सिंह/कर्ण सिंह (1158ई.)
रणसिंह के समय गोहिल वंश दो शाखाओं में बट गया :-
(१) रावल शाखा :- रण सिंह के पुत्र क्षेम सिंह ने रावल शाखा का निर्माण कर मेवाड़ पर शासन किया।
(२) राणा शाखा :- रण सिंह के दूसरे पुत्र राहप ने सिसोदा ठिकाने की स्थापना कर राणा शाखा की शुरुआत की तथा यही आगे सिसोदिया कहलाए।
रावल शाखा के क्षेम सिंह के पुत्र सामन्तसिंह का विवाह अजमेर के शासक पृथ्वीराज चौहान (द्वितीय) की बहिन पृथ्वीबाई के साथ हुआ।
नाडोल के चौहान शासक कीर्ति पाल ने मेवाड़ पर आक्रमण कर सामन्त सिंह को पराजित कर मेवाड़ पर अधिकार कर लिया।
क्षेम सिंह के पुत्र कुमारसिंह ने कीर्तिपाल को पराजित कर मेवाड़ पर पुनः अधिकार प्राप्त किया।
सामन्त सिंह की पटरानी तथा कुमार सिंह की माता तथा मेवाड़ की राजमाता कर्म देवी ने कुतुबुद्दीन ऐबक को आमेर के निकट पराजित किया।
जैत्रसिंह (1213-1250ई.)
नाडोल के चौहान शासक उदय सिंह ने अपनी पौत्री रूपा देवी का विवाह जैत्र सिंह के पुत्र तेज सिंह के साथ कर मेवाड़ से संधि की।
जैत्र सिंह ने अपनी राजधानी चित्तौड़गढ़ बनाई। जयसिंह सूरी कृत “हम्मीर हद मर्दन” नामक पुस्तक के अनुसार 1227 ई. में जैत्र सिंह व बादशाह इल्तुतमिश के मध्य “भुताला का युद्ध” हुआ तथा जैत्र सिंह ने इल्तुतमिश को पराजित किया।
डॉ. गौरीशंकर ओझा के अनुसार गुलाम सुल्तानों के समय में जैत्रसिंह सबसे प्रतापी बलवान शासक था।
तेजसिंह (1250-1273 ई.)
तेजसिंह के कार्यकाल में मेवाड़ चित्रकला शैली का प्रथम चित्रित ग्रंथ “श्रावक प्रतिक्रमण चूर्णी” का निर्माण किया गया। समर सिंह (1273-1301 ई.)
तेज सिंह के पुत्र समर सिंह को कुंभलगढ़ प्रशस्ति में “शत्रुओं की शक्ति का अपहर्ता” तथा आबू शिलालेख में “तुर्कों से गुजरात का उद्धारक” लिखा गया है।
अचलगच्छ की पट्टावली के अनुसार समर सिंह ने अपने राज्य में जीव हिंसा पर रोक लगा दी थी।
जैन आचार्य जिन प्रभसूरी के तीर्थकल्प के अनुसार समर सिंह ने अलाउद्दीन खिलजी की शाही सेना के गुजरात अभियान के समय सेनापति उलूग खां से धन लेकर अपने राज्य से गुजरने दिया।
रतन सिंह (1301-1303 ई.)
कुंभलगढ़ प्रशस्ति तथा एकलिंग महात्म्य ग्रंथ के अनुसार समर सिंह के बाद रतन सिंह मेवाड़ का शासक बना।
रावल शाखा का अंतिम शासक रतन सिंह। रतन सिंह के समकालीन दिल्ली का सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी था।
चित्तौड़ दुर्ग के भौगोलिक व सामरिक महत्व को जानते हुए अलाउद्दीन खिलजी ने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया।
कुछ इतिहासकार इस युद्ध का कारण रानी पद्मिनी को भी मानते हैं। अमीर खुसरो ने इस युद्ध का चित्रण अपनी पुस्तक “खजाइनुल फुतुह” में किया।
अलाउद्दीन खिलजी ने छ:माह तक डेरा डाल कर रखा। चित्तौड़ दुर्ग की रक्षा करते हुए सिसोदा रियासत के सामान्त लक्ष्मण सिंह अपने साथ पुत्रों सहित शहीद हो गए।
लक्ष्मण सिंह का एक पुत्र अजय सिंह भाग्यवस बच जाता है। रतन सिंह और उनके दोनों सेनापति गोरा और बादल इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए।
रानी पद्मिनी ने 1600 राजपूत महिलाओं के साथ जौहर किया।
26 अगस्त 1303 ईसवी को चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर अलाउद्दीन खिलजी का अधिकार हो गया। उसने चित्तौड़ का नाम खिज्राबाद कर दिया तथा शासन अपने बेटे खिज्र खां को देख कर दिल्ली लौट गया।
अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु हो जाने पर खिज्र खां ने चित्तौड़ की बागडोर मालदेव चौहान (जालौर) को सौंपकर दिल्ली चला गया।
रानी पद्मिनी
मलिक मोहम्मद जायसी के द्वारा 1540 ई. में शेरशाह सुरी के समय मेवाड़ की रानी पद्मिनी पर पद्मावत नामक ग्रंथ की रचना की गई।
इस ग्रंथ के अनुसार रानी पद्मिनी का जन्म सिंहल द्वीप राज्य में राजा गंधर्व सेन, रानी चंपावती के घर हुआ था। रानी पद्मिनी अति सुंदर राजकुमारी थी। पद्मिनी के पास हिरामन नामक बोलने वाला तोता था।
एक दिन हीरामन उड़कर गागरोन दुर्ग पहुंच गया, वहां उसे शिकारी ने पकड़कर मेवाड़ के राजा रतन सिंह को बेच दिया। हिरामन ने महाराजा रतन सिंह को राजकुमारी पद्मिनी की सुंदरता के बारे में बताया।
महाराजा रतन सिंह जोगी का वेश कर सिंहल द्वीप राज्य पहुंच गए तथा जब राजकुमारी पद्मिनी को देखा तो उनसे शादी करने का विचार कर लिया। जब महाराजा गंधर्व सेन को पूरी जानकारी मिली तो उन्होंने अपनी बेटी का विवाह रतन सिंह से कर दिया।
महाराजा रतन सिंह रानी पद्मिनी को लेकर मेवाड़ पहुंचे। राघव चेतन नामक ब्राह्मण जो जादू टोने करने में माहिर था उसने जब रानी पद्मिनी को देखा तो मंत्रमुग्ध हो गया।
कुछ समय बाद किसी कारणवश राघव चेतन को महाराजा रतन सिंह ने मेवाड़ से निष्कासित कर दिया इस बात से खफा होकर राघव चेतन ने रतनसिंह का सर्वनाश करने की ठान ली।
राघव चेतन चित्तौड़ से सीधा दिल्ली अलाउद्दीन खिलजी के पास पहुंचकर रानी पद्मिनी के सौंदर्य के बारे में उसे बताया।
तब अलाउद्दीन खिलजी ने पद्मावती को पाने के लिए मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया। 6 माह तक चित्तौड दुर्ग को घेर कर रखा।
अलाउद्दीन खिलजी ने रतन सिंह को धोखे से बंदी बनाकर दिल्ली लेकर चला गया तथा संदेश भेजा कि रतनसिंह को जीवित छोड़ने के लिए रानी पद्मिनी को उसके दरबार में भेज दे।
रानी पद्मिनी,गोरा तथा बादल सेनापतियों तथा 1600 पालकियों में सैनिकों सहित दिल्ली पहुंचकर रतन सिंह को छुड़ाकर ले जाती है।
इस युद्ध में गोरा शहीद हो जाते हैं। अलाउद्दीन खिलजी शाही सेना लेकर मेवाड़ पर आक्रमण कर देता है। रावल रतन सिंह व बादल शहीद हो जाते हैं।